अतिरिक्त >> सहमे सहमे अक्षर सहमे सहमे अक्षरसुरेन्द्र प्रताप सिंह
|
2 पाठकों को प्रिय 181 पाठक हैं |
इसमें मटियानी जी के माध्यम से रचनाधर्मिता के विभिन्न सोपानों को उजागर करने का प्रयास किया....दर्द तुम देते रहो और गीत मैं लिखता रहूँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
क्या कहूं.......3>
रचनाकार तो सिर्फ तू है, हम सभी तो मात्र बंदे हैं तो तेरे दम पर कलम
डुलाने का दम भरते हैं। अतः स्वयं में अवस्थित परम रचनाकार तथा उसको बोध
कराने वाले सद्गुरुओं को प्रणाम एवं नमन् करते हुए अपनी बात आगे बढ़ाता
हूँ।
रचनाधर्मिता और कुछ नहीं सिर्फ खुद से खुद का बात करना है। हम लिखते समय खुद से बात कर रहे होते हैं। साहित्य खुद से बात करने का आन्तरिक विधान है। घटनायें बाहर भी घटित होती हैं और अन्दर भी। हम उससे प्रभावित होते हैं और कुछ रचने लगते हैं।
रचनाकार स्वयं भी तो एक पात्र है, अपने लिए भी तथा दूसरों के लिए भी। हम प्रायः दूसरों को पहले जानने-समझने का प्रयास करते हैं। यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति है, सामासिक प्रकृति है। लेकिन रचनाधर्मिता के वैयक्तिक स्वरूप में हम स्वयं को समझने में लगे होते हैं। हम दूसरे के चरित्र को नहीं बल्कि अपने को लिख रहे होते हैं। यह साहित्य का रेचन धर्म है। यह अन्तर्मुखी प्रवृत्ति है। जो स्वयं को जितनी सफलता से-सघनता से व्यक्त कर पाने में सफल होता है, यह कहा जा सकता है कि उसने स्वयं को उतना जानने में सफलता पायी है।
हम कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं हम साहित्यिक सर्जना करते हैं, अपने लिए करते हैं। हम पात्रों में अपना निजत्व तलाशते हैं हमारी निजता उन चरित्रों-पात्रों के आस-पास की होती है। हम उनसे एकरूप हो जाते हैं। यही आभ्यान्तरीकरण है। कम से कम उन क्षणों में पात्र में और रचनाकार में कोई अंतर नहीं होता। हम बतौर पात्र-चरित्र-किरदार के साथ जी-मर रहे होते हैं, सुखी-दुखी हो रहे होते हैं। तभी हमें लगता है कि अरे, हम नहीं डूबे। हमारी नाव किनारे लग गयी। रचना का प्रसव हो गया सो हमारा दूसरा जन्म हुआ सा लगता है। यकीन मानिये, बिना डूबे न साहित्य रचा जाता है न ही साहित्य का आनन्द मिलता है। यही तो साहित्य की मधुमती भूमिका कहलाती है।
हम लगातार पृष्ठ पलटते जाते हैं और उसमें खुद को अक्श करते जाते हैं। बिना पृष्ठ के कोई साहित्य लिखा गया है क्या ? यदि पृष्ठ ही न हो तो क्या करेंगे आप ? अक्षरों की खेती सिर्फ कागज पर ही की जा सकती है ? यह रचनाधर्मिता का अर्ध सत्य है। हम कुछ भी न लिखें तो क्या साहित्य सर्जना नहीं होगी ? मौन वाणी का क्या कहना ? निर्वेद का क्या कहना ? सारा का सारा कैनवास-क्षितिज जीवंत रचनाधर्मिता से अटा पड़ा है। ये परम रचनाकार की सर्जनायें हैं। हम दूसरे पायदान के किरदार हैं, रचनाधर्मी हैं। सर्जक तो तू है, हम मात्र सर्जन हैं। तुम्हारे वास्ते तेरे नाम से चलने का कुछ दम भरते हैं। सूत्र-रूप में ही सही यह अपनी तरफ से साहित्य का मानस शास्त्र (साइकॉलॉजी) है।
इस संग्रह का पहला लेख ‘रचनाधर्मिता का दर्द और शैलेश मटियानी’ ‘अतएव’ (हिन्दी संस्थान, लखनऊ) के नवम्बर 97 अंक में मटियानी जी को लोहिया सम्मान मिलने के पश्चात विशेष संदर्भ के अन्तर्गत छपा था। इसमें मटियानी जी के माध्यम से रचनाधर्मिता के विभिन्न सोपानों को उजागर करने का प्रयास किया....दर्द तुम देते रहो और गीत मैं लिखता रहूँ....साफगोई अपनी विवशता है। इसलिए अपने मन की बात आप सबके सम्मुख रखना प्रासंगिक साथ ही भला प्रतीत हो रहा है। मटियानी जी आपके लिए साहित्यकार हो सकते हैं परन्तु अपने लिए वे एक किस्म हैं, व्यक्तित्व प्रकार हैं। मनः शास्त्रीय भूमिका में ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का विश्लेषण संश्लेषण अपना मनोसाहित्यिक धर्म बनता है। साहित्यकार का स्वाभिमान-निजत्व बना रहे, यही साहित्य एवं साहित्यकारों से अपेक्षा है क्योंकि इसी के चलते सूर सूर हुए और कबीर कबीर साहेब।
दर्द का सहना और दर्द बाँटना-साहित्यकारों की नियति होती है। दर्द को उजागर करना-सवाल खड़े करना निज का कर्तव्य है। इसी भाव से ‘मैं क्यों नहीं बन सका बाबा तुलसी’ को इस संकलन में स्थान दिया। यह सवाल नितान्त हमारा सवाल नहीं है। कौन नहीं चाहेगा बाबा तुलसी की रचनाधर्मिता की ऊँचाइयों को अर्जित करना ! वैसे तो कबीर साहेब की निरगुनिया परम्परा का कहना ही क्या-निर्वेद लिखना कोई कबीर से सीखे। अन्यथा महाप्राण निराला से लेकर डॉ. शिव प्रसाद सिंह तक ने बाबा तुलसी को अपना आदर्श स्वीकारा। मटियानी जी अपनी अधूरी मनःस्थिति में हल्द्वानी प्रवास के दिन में अक्सर यह सवाल अत्यन्त सहजता से उठाया करते थे। उतनी ही सहजता से मैंने उन्हें एक दिन उत्तर दिया है कि आप निपुण हैं। मटियानी जी ने हंसकर कहा कि पूर्वांचल के लोग इसी तरह से गाली देते हैं। लेकिन बन्धु ! जीवन को दिशा देने का कार्य सद्गुरु ही किया करते हैं। हमने सद्गुरुओं का आशीष पाया है सो अनहद बाजा का मधुर धीमा स्वर हमें सुनायी देने लगे तो हम कर ही क्या सकते हैं। यह लेख नवनीत के दीपावली विशेषांक (नव० 99) में प्रकाशित हुआ। इस प्रकार हमने हिम्मत जुटाई और साहित्य के इस महत् प्रश्न की छानबीन में लगे रहे। जो सूझा लिखा दिया।
रचनाधर्मिता के साथ-साथ हमारा अपना ‘साहित्यिक व्यक्तित्व’ भी विनिर्मित होता है, साहित्यिक मौलिकता का मूल आधार व्यक्तित्व की मौलिकता है। हम नये सवाल-नये चिंतन-नयी बात रख सकें, इसके लिए कुछ तैयारी भी करनी पड़ती है। इसी के अन्तर्गत साहित्यकारों के सान्निध्य सुख की विवेचना की जा सकती है। बतौर पाठक-श्रोता हम रचनाधर्मी व्यक्तियों से जुड़ सकते हैं। हमारे हल्द्वानी प्रवास काल (1995-1997) में अग्रज मटियानी जी का प्रत्यक्ष सुख मिला। कभी-कभी मुझे लगता कि मैं मटियानी जी को बतौर एक वैज्ञानिक के जितना ठीक से समझ सकता हूँ उतना वे भी स्वयं को समझ नहीं सके। मानसशास्त्र (साइकॉलॉजी) का अध्येता होने का यही तो आत्मिक सुख है। उनके व्यक्तित्व एवं रचनाधर्मिता के सृजन से लेकर टूटने तक के हम साक्षी रहे हैं। ऐसी स्थिति में लगता है कि अपने साहित्यकार पर अपना मनोवैज्ञानिक हावी होने लगता है। प्रायः महाप्राण निराला, महादेवी वर्मा, मटियानी जी, फिराक साहब हमें एक नाव में डूबते-उतराते मिले हैं सो बहुत गहरे तक उनके व्यक्तित्व में खुद को तलाशता रहा। कितना सफल असफल हुआ ये तो अपनी लेखनी से निकले शब्द बतायेंगे।
आज हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं। विश्व मानवता आतंक-दहशत-हत्या-बलात्कार-खूरेजी के आलम में डूब चुका है। श्वेत, कपोत, शांति का प्रतीक, घायल है। धरती पर टप-टप रक्त गिरता जा रहा है। फिर भी वह उड़ रहा है—उसे विश्वास है कि वह मंजिल की तलाश कर लेगा उसे पा लेगा। तमाम विकास के बावजूद हम जहाँ हैं वहाँ यह नहीं लगता है कि हम विकास किये हैं। आदमी को आदमी कहने की अपनी स्थिति नहीं दीखती....आदमी को किसलिए और क्यों कहें हम आदमी....! ऐसे में सम्पूर्ण मानवता का महात्मा गाँधी को ‘बीसवीं सदी का प्रथम मानव’ कहना हमें यह लगता है कि सारे सवालों का एकबारगी समाधान खोज लिया है। गाँधी व्यक्ति नहीं दर्शन हैं। भारत को यदि एक शब्द से परिभाषित करना हो तो वह शब्द है ‘अहिंसा’। हिंसा का समाधान हिंसा में नहीं अहिंसा में है। अहिंसा का कतई मतलब कायरता नहीं, यदि आवश्यकता पड़ी तो आत्म बलिदान किया जाना चाहिए। यही ब्राह्मणत्व है। आत्म हत्या और आत्म बलिदान में साफ-साफ अंतर किया जाना चाहिए। ऐसे समाधानकर्त्ता-विश्वमानव के वैयक्तिक सामासिक व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं से परिचित होना वर्तमान और आगामी पीढ़ी का धर्म है। आज सम्पूर्ण विश्व भारत से अपेक्षा कर रहा है कि यह विश्व को विपथन-अपदोहन-अपसंस्कृति से उबार ले। गाँधी संवेदना का सहज पुंज है सो साहित्य में आपका स्थान अक्षुण्य है। ऐसे साहित्य को रचकर पढ़कर हम गाँधी जी की संवेदना से ओतप्रोत हों साथ ही हम गाँधी न सही मिनी गाँधी तो हों—यही अपना साधुवाद है। किसी की उपेक्षा हो या फिर नये सिरे से पुनः सवाल खड़ा हो, इसके लिए गाँधी बाबा को इस संग्रह में स्थान नहीं दिया है बल्कि गाँधी एक अनवर्त तलाश है, शाश्वत उत्तर है, अनुत्तरित समाधान है—इसलिए उन्हें हमने यहाँ अपने निजत्व के दायरे में रखने का उपक्रम किया है। साथ ही कुछ संस्मरणात्मक लेखों के जरिये गाँधी बाबा को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।
गाँधी बोले भारत को जानना हो तो यहाँ के गाँवों को जरूर देखिये। हमारे कवि मित्र रसिक जी ने अपने एक सुंदर गीत से अपने अन्तरस का दर्द बयान करते हुए लिखा है—‘कभी आइये पगडंडी से होकर मेरे गाँव में। कितने काँटे चुभे दिखाऊँ हर किसान के पाँव में।’ किसे फुर्सत है गाँवों का दर्द जानने की। वहाँ की संवेदना-सहजता-लालित्य आज भी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए है। लोक कथाओं से लेकर लोकगीतों तक में लोक रचनाओं ने सारी बात अत्यन्त सुन्दरता से रखने का उपक्रम किया है। सो ‘मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार’ तथा ‘बीतल जाय सावन रितु गुइयां’ नामक दो लेखों में ग्राम्य-संस्कृति को चित्रित करने का उपक्रम किया गया है। लोक सर्जना पर नये सिरे से विचार हो-यहाँ ऐसे लेखों का यही परम भाव है।
अंतिम पायदान से थोड़ा पहले ‘दिन भर का सफर’ और ‘एक था चिड़ा और एक थी चिड़ी’ दो ऐसे लेख हैं जो नितान्त वैयक्तिक स्वरूप के होते हुए भी सामासिक स्वरूप के हैं। इन दोनों लेखो में अपने को आधा अधूरा ही सही उजागर करने का साहस किया है। रचनाधर्मिता को जानने का यह भी आधार है कि रचनाधर्मी व्यक्तित्व को जाना जाय। वैसे तो अपने व्यक्तित्व के अनेकों आयाम हैं, फिर कभी अलग से विस्तार से बात करूँगा। अभी तो सिर्फ इतना ही कि रचनाकार को जाने बिना उसकी रचनाधर्मिता को क्या जानना ? तुलसी को जाने बिना तुलसी के राम को क्या जानना। ‘अमित’ को जाने बिना ‘सहमे सहमे अक्षर’ को क्या जानना।
वर्तमान में साहित्य एवं साहित्यकारों का मानसशास्त्र जानना हो तो ‘सहमे सहमे अक्षर’ को आत्मसात् किया जाय। हमने क्या खोया-क्या पाया ? अब हमारी साहित्यिक हैसियत क्या रह गयी है ? साहित्य का समाज धर्म क्या रह गया है ? जो साहित्य सृजन हो रहा है उसका सामासिक प्रभाव क्या है ? बीज से वृक्ष तक की कड़ियाँ हैं यथा विचार-भाव-सम्वेदना-साहित्य। सो इन कड़ियों की कोई प्रासंगिकता रह गयी है या नहीं। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, उसके मूल में कहीं न कहीं हमारी रचनाधर्मिता ही होती है। हम जो चाह रहे हैं वह लिखते चले जा रहे हैं, बिना किसी रोक टोक के। चलिये मान लेते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के चलते हमें लिखते रहना चाहिए। सवाल यहाँ यह उठता है कि हम जो कुछ भी जिस लक्ष्य को लेकर लिख रहे हैं, उसे हम क्यों नहीं पा रहे हैं ? यकीन मानिए, कहीं न कहीं हमारी रचनाधर्मिता अधूरी है। असफलता यह सिद्ध करती है कि सफलता के लिए हमने पूरे हृदय से प्रयास नहीं किया। भले ही ये सवाल आपके न हों परन्तु अपने लिये तो हैं। यदि जीवन का लक्ष्य है तो साहित्य का भी लक्ष्य है और साहित्यकार का भी।
रचनाधर्मिता और कुछ नहीं सिर्फ खुद से खुद का बात करना है। हम लिखते समय खुद से बात कर रहे होते हैं। साहित्य खुद से बात करने का आन्तरिक विधान है। घटनायें बाहर भी घटित होती हैं और अन्दर भी। हम उससे प्रभावित होते हैं और कुछ रचने लगते हैं।
रचनाकार स्वयं भी तो एक पात्र है, अपने लिए भी तथा दूसरों के लिए भी। हम प्रायः दूसरों को पहले जानने-समझने का प्रयास करते हैं। यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति है, सामासिक प्रकृति है। लेकिन रचनाधर्मिता के वैयक्तिक स्वरूप में हम स्वयं को समझने में लगे होते हैं। हम दूसरे के चरित्र को नहीं बल्कि अपने को लिख रहे होते हैं। यह साहित्य का रेचन धर्म है। यह अन्तर्मुखी प्रवृत्ति है। जो स्वयं को जितनी सफलता से-सघनता से व्यक्त कर पाने में सफल होता है, यह कहा जा सकता है कि उसने स्वयं को उतना जानने में सफलता पायी है।
हम कुछ भी करते हैं, अपने लिए करते हैं हम साहित्यिक सर्जना करते हैं, अपने लिए करते हैं। हम पात्रों में अपना निजत्व तलाशते हैं हमारी निजता उन चरित्रों-पात्रों के आस-पास की होती है। हम उनसे एकरूप हो जाते हैं। यही आभ्यान्तरीकरण है। कम से कम उन क्षणों में पात्र में और रचनाकार में कोई अंतर नहीं होता। हम बतौर पात्र-चरित्र-किरदार के साथ जी-मर रहे होते हैं, सुखी-दुखी हो रहे होते हैं। तभी हमें लगता है कि अरे, हम नहीं डूबे। हमारी नाव किनारे लग गयी। रचना का प्रसव हो गया सो हमारा दूसरा जन्म हुआ सा लगता है। यकीन मानिये, बिना डूबे न साहित्य रचा जाता है न ही साहित्य का आनन्द मिलता है। यही तो साहित्य की मधुमती भूमिका कहलाती है।
हम लगातार पृष्ठ पलटते जाते हैं और उसमें खुद को अक्श करते जाते हैं। बिना पृष्ठ के कोई साहित्य लिखा गया है क्या ? यदि पृष्ठ ही न हो तो क्या करेंगे आप ? अक्षरों की खेती सिर्फ कागज पर ही की जा सकती है ? यह रचनाधर्मिता का अर्ध सत्य है। हम कुछ भी न लिखें तो क्या साहित्य सर्जना नहीं होगी ? मौन वाणी का क्या कहना ? निर्वेद का क्या कहना ? सारा का सारा कैनवास-क्षितिज जीवंत रचनाधर्मिता से अटा पड़ा है। ये परम रचनाकार की सर्जनायें हैं। हम दूसरे पायदान के किरदार हैं, रचनाधर्मी हैं। सर्जक तो तू है, हम मात्र सर्जन हैं। तुम्हारे वास्ते तेरे नाम से चलने का कुछ दम भरते हैं। सूत्र-रूप में ही सही यह अपनी तरफ से साहित्य का मानस शास्त्र (साइकॉलॉजी) है।
इस संग्रह का पहला लेख ‘रचनाधर्मिता का दर्द और शैलेश मटियानी’ ‘अतएव’ (हिन्दी संस्थान, लखनऊ) के नवम्बर 97 अंक में मटियानी जी को लोहिया सम्मान मिलने के पश्चात विशेष संदर्भ के अन्तर्गत छपा था। इसमें मटियानी जी के माध्यम से रचनाधर्मिता के विभिन्न सोपानों को उजागर करने का प्रयास किया....दर्द तुम देते रहो और गीत मैं लिखता रहूँ....साफगोई अपनी विवशता है। इसलिए अपने मन की बात आप सबके सम्मुख रखना प्रासंगिक साथ ही भला प्रतीत हो रहा है। मटियानी जी आपके लिए साहित्यकार हो सकते हैं परन्तु अपने लिए वे एक किस्म हैं, व्यक्तित्व प्रकार हैं। मनः शास्त्रीय भूमिका में ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का विश्लेषण संश्लेषण अपना मनोसाहित्यिक धर्म बनता है। साहित्यकार का स्वाभिमान-निजत्व बना रहे, यही साहित्य एवं साहित्यकारों से अपेक्षा है क्योंकि इसी के चलते सूर सूर हुए और कबीर कबीर साहेब।
दर्द का सहना और दर्द बाँटना-साहित्यकारों की नियति होती है। दर्द को उजागर करना-सवाल खड़े करना निज का कर्तव्य है। इसी भाव से ‘मैं क्यों नहीं बन सका बाबा तुलसी’ को इस संकलन में स्थान दिया। यह सवाल नितान्त हमारा सवाल नहीं है। कौन नहीं चाहेगा बाबा तुलसी की रचनाधर्मिता की ऊँचाइयों को अर्जित करना ! वैसे तो कबीर साहेब की निरगुनिया परम्परा का कहना ही क्या-निर्वेद लिखना कोई कबीर से सीखे। अन्यथा महाप्राण निराला से लेकर डॉ. शिव प्रसाद सिंह तक ने बाबा तुलसी को अपना आदर्श स्वीकारा। मटियानी जी अपनी अधूरी मनःस्थिति में हल्द्वानी प्रवास के दिन में अक्सर यह सवाल अत्यन्त सहजता से उठाया करते थे। उतनी ही सहजता से मैंने उन्हें एक दिन उत्तर दिया है कि आप निपुण हैं। मटियानी जी ने हंसकर कहा कि पूर्वांचल के लोग इसी तरह से गाली देते हैं। लेकिन बन्धु ! जीवन को दिशा देने का कार्य सद्गुरु ही किया करते हैं। हमने सद्गुरुओं का आशीष पाया है सो अनहद बाजा का मधुर धीमा स्वर हमें सुनायी देने लगे तो हम कर ही क्या सकते हैं। यह लेख नवनीत के दीपावली विशेषांक (नव० 99) में प्रकाशित हुआ। इस प्रकार हमने हिम्मत जुटाई और साहित्य के इस महत् प्रश्न की छानबीन में लगे रहे। जो सूझा लिखा दिया।
रचनाधर्मिता के साथ-साथ हमारा अपना ‘साहित्यिक व्यक्तित्व’ भी विनिर्मित होता है, साहित्यिक मौलिकता का मूल आधार व्यक्तित्व की मौलिकता है। हम नये सवाल-नये चिंतन-नयी बात रख सकें, इसके लिए कुछ तैयारी भी करनी पड़ती है। इसी के अन्तर्गत साहित्यकारों के सान्निध्य सुख की विवेचना की जा सकती है। बतौर पाठक-श्रोता हम रचनाधर्मी व्यक्तियों से जुड़ सकते हैं। हमारे हल्द्वानी प्रवास काल (1995-1997) में अग्रज मटियानी जी का प्रत्यक्ष सुख मिला। कभी-कभी मुझे लगता कि मैं मटियानी जी को बतौर एक वैज्ञानिक के जितना ठीक से समझ सकता हूँ उतना वे भी स्वयं को समझ नहीं सके। मानसशास्त्र (साइकॉलॉजी) का अध्येता होने का यही तो आत्मिक सुख है। उनके व्यक्तित्व एवं रचनाधर्मिता के सृजन से लेकर टूटने तक के हम साक्षी रहे हैं। ऐसी स्थिति में लगता है कि अपने साहित्यकार पर अपना मनोवैज्ञानिक हावी होने लगता है। प्रायः महाप्राण निराला, महादेवी वर्मा, मटियानी जी, फिराक साहब हमें एक नाव में डूबते-उतराते मिले हैं सो बहुत गहरे तक उनके व्यक्तित्व में खुद को तलाशता रहा। कितना सफल असफल हुआ ये तो अपनी लेखनी से निकले शब्द बतायेंगे।
आज हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं। विश्व मानवता आतंक-दहशत-हत्या-बलात्कार-खूरेजी के आलम में डूब चुका है। श्वेत, कपोत, शांति का प्रतीक, घायल है। धरती पर टप-टप रक्त गिरता जा रहा है। फिर भी वह उड़ रहा है—उसे विश्वास है कि वह मंजिल की तलाश कर लेगा उसे पा लेगा। तमाम विकास के बावजूद हम जहाँ हैं वहाँ यह नहीं लगता है कि हम विकास किये हैं। आदमी को आदमी कहने की अपनी स्थिति नहीं दीखती....आदमी को किसलिए और क्यों कहें हम आदमी....! ऐसे में सम्पूर्ण मानवता का महात्मा गाँधी को ‘बीसवीं सदी का प्रथम मानव’ कहना हमें यह लगता है कि सारे सवालों का एकबारगी समाधान खोज लिया है। गाँधी व्यक्ति नहीं दर्शन हैं। भारत को यदि एक शब्द से परिभाषित करना हो तो वह शब्द है ‘अहिंसा’। हिंसा का समाधान हिंसा में नहीं अहिंसा में है। अहिंसा का कतई मतलब कायरता नहीं, यदि आवश्यकता पड़ी तो आत्म बलिदान किया जाना चाहिए। यही ब्राह्मणत्व है। आत्म हत्या और आत्म बलिदान में साफ-साफ अंतर किया जाना चाहिए। ऐसे समाधानकर्त्ता-विश्वमानव के वैयक्तिक सामासिक व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं से परिचित होना वर्तमान और आगामी पीढ़ी का धर्म है। आज सम्पूर्ण विश्व भारत से अपेक्षा कर रहा है कि यह विश्व को विपथन-अपदोहन-अपसंस्कृति से उबार ले। गाँधी संवेदना का सहज पुंज है सो साहित्य में आपका स्थान अक्षुण्य है। ऐसे साहित्य को रचकर पढ़कर हम गाँधी जी की संवेदना से ओतप्रोत हों साथ ही हम गाँधी न सही मिनी गाँधी तो हों—यही अपना साधुवाद है। किसी की उपेक्षा हो या फिर नये सिरे से पुनः सवाल खड़ा हो, इसके लिए गाँधी बाबा को इस संग्रह में स्थान नहीं दिया है बल्कि गाँधी एक अनवर्त तलाश है, शाश्वत उत्तर है, अनुत्तरित समाधान है—इसलिए उन्हें हमने यहाँ अपने निजत्व के दायरे में रखने का उपक्रम किया है। साथ ही कुछ संस्मरणात्मक लेखों के जरिये गाँधी बाबा को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।
गाँधी बोले भारत को जानना हो तो यहाँ के गाँवों को जरूर देखिये। हमारे कवि मित्र रसिक जी ने अपने एक सुंदर गीत से अपने अन्तरस का दर्द बयान करते हुए लिखा है—‘कभी आइये पगडंडी से होकर मेरे गाँव में। कितने काँटे चुभे दिखाऊँ हर किसान के पाँव में।’ किसे फुर्सत है गाँवों का दर्द जानने की। वहाँ की संवेदना-सहजता-लालित्य आज भी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए है। लोक कथाओं से लेकर लोकगीतों तक में लोक रचनाओं ने सारी बात अत्यन्त सुन्दरता से रखने का उपक्रम किया है। सो ‘मोरे सैंयाजी उतरेंगे पार’ तथा ‘बीतल जाय सावन रितु गुइयां’ नामक दो लेखों में ग्राम्य-संस्कृति को चित्रित करने का उपक्रम किया गया है। लोक सर्जना पर नये सिरे से विचार हो-यहाँ ऐसे लेखों का यही परम भाव है।
अंतिम पायदान से थोड़ा पहले ‘दिन भर का सफर’ और ‘एक था चिड़ा और एक थी चिड़ी’ दो ऐसे लेख हैं जो नितान्त वैयक्तिक स्वरूप के होते हुए भी सामासिक स्वरूप के हैं। इन दोनों लेखो में अपने को आधा अधूरा ही सही उजागर करने का साहस किया है। रचनाधर्मिता को जानने का यह भी आधार है कि रचनाधर्मी व्यक्तित्व को जाना जाय। वैसे तो अपने व्यक्तित्व के अनेकों आयाम हैं, फिर कभी अलग से विस्तार से बात करूँगा। अभी तो सिर्फ इतना ही कि रचनाकार को जाने बिना उसकी रचनाधर्मिता को क्या जानना ? तुलसी को जाने बिना तुलसी के राम को क्या जानना। ‘अमित’ को जाने बिना ‘सहमे सहमे अक्षर’ को क्या जानना।
वर्तमान में साहित्य एवं साहित्यकारों का मानसशास्त्र जानना हो तो ‘सहमे सहमे अक्षर’ को आत्मसात् किया जाय। हमने क्या खोया-क्या पाया ? अब हमारी साहित्यिक हैसियत क्या रह गयी है ? साहित्य का समाज धर्म क्या रह गया है ? जो साहित्य सृजन हो रहा है उसका सामासिक प्रभाव क्या है ? बीज से वृक्ष तक की कड़ियाँ हैं यथा विचार-भाव-सम्वेदना-साहित्य। सो इन कड़ियों की कोई प्रासंगिकता रह गयी है या नहीं। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, उसके मूल में कहीं न कहीं हमारी रचनाधर्मिता ही होती है। हम जो चाह रहे हैं वह लिखते चले जा रहे हैं, बिना किसी रोक टोक के। चलिये मान लेते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के चलते हमें लिखते रहना चाहिए। सवाल यहाँ यह उठता है कि हम जो कुछ भी जिस लक्ष्य को लेकर लिख रहे हैं, उसे हम क्यों नहीं पा रहे हैं ? यकीन मानिए, कहीं न कहीं हमारी रचनाधर्मिता अधूरी है। असफलता यह सिद्ध करती है कि सफलता के लिए हमने पूरे हृदय से प्रयास नहीं किया। भले ही ये सवाल आपके न हों परन्तु अपने लिये तो हैं। यदि जीवन का लक्ष्य है तो साहित्य का भी लक्ष्य है और साहित्यकार का भी।
|
लोगों की राय
No reviews for this book